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कविता: मुसाफिर

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"मुसाफिर"

जिंदगी एक खोज रही

मै मुसाफिर ही रही

इस घर से उस घर तक चली

नाम को तरसती रही

निगाहें मुझ पर ही टिकी

मेरे लिए ना घड़ी बनी

मै मुसाफिर ही रही

आहट मेरी पहचाने न कोई

आरज़ू फर्ज ने है कुचली

अब बगावत पर हूं अडी

रूह भी है सहम रही 

मै मुसाफिर ही रही ।

                      - अर्पित सचान


               

टिप्पणियाँ

Shilpi thakur ने कहा…
Very nice
Kavya mishra ने कहा…
Wow very beautiful poem
Sobhit kasyap ने कहा…
Nice
Shivam Sharma ने कहा…
Nice

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