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कविता: मुसाफिर

. "मुसाफिर" जिंदगी एक खोज रही मै मुसाफिर ही रही इस घर से उस घर तक चली नाम को तरसती रही निगाहें मुझ पर ही टिकी मेरे लिए ना घड़ी बनी मै मुसाफिर ही रही आहट मेरी पहचाने न कोई आरज़ू फर्ज ने है कुचली अब बगावत पर हूं अडी रूह भी है सहम रही  मै मुसाफिर ही रही ।                       -   अर्पित सचान