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कविता: अफसोस नहीं

" अफसोस नहीं "

ऐ मेरी मोहब्बत मै तेरे दूर जाने का अफसोस नहीं करती 
 तू अकेली नहीं गई
 तेरे साथ मेरी रूह भी गई है
ज़िन्दगी की उलझनों से कभी फुरसत मिले
तो बीते हुए पलों में उनको भी तलाश लेना 
जिन्होंने तुमसे नहीं तुम्हारी रूह से मोहब्बत की ।
कब्र में तो जिस्म दफ्फन होते हैं
रूह- ए- मोहब्बत तो आज़ाद होती है
कभी बागो में खिले फूलों पर मंडराती तितली की तरह
कभी हवाओं में घुली सोंधी खुशबू की तरह
नदियों में उफनाते जल की तरह
सूरज की सुनहरी धूप की तरह
जिसे महसूस किया जा सकता है,पाया नहीं
जीवन में कभी अकेलापन लगे तो
खुद को कभी अकेला मत समझना
जब मेरी रूह जिस्म से आज़ाद हो
उस वक्त भी तुम्हारे साथ होगी
इसलिए मै तेरे दूर जाने का अफसोस नहीं करती।।

-  प्रीती सचान

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