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"बस की एक सीट पर इश्क़ बैठा था"
सफर में था, थकान सी थी
दिल भी कुछ अनजान सी था,
रात थी — चाँद कहीं बादलों में खोया हुआ,
और मेरे दिल में कोई ख्वाब गूंज रहा था।
बस आई, और मेरी बगल की सीट पर
वो लड़की बैठी — जैसे कोई दुआ क़बूल हो गई थी।
गोरी सी, सादगी में डूबी हुई,
बालों को ज़रा सा कानों के पीछे कर के बैठी थी,
फोन उसके हाथ में था,
पर निगाहें कभी-कभी खिड़की से बाहर भटकती थीं।
रात की खामोशी में उसकी सांसों की सदा थी,
हर पल ऐसा लगा जैसे कोई दुआ साथ चला था।
बस की धीमी रफ़्तार और नीली सी रौशनी,
जैसे इश्क़ ने चुपके से चादर ओढ़ ली थी।
उसके आंखों से टकराती रोशनी,
मेरे दिल में कोई तरंग सी छोड़ रही थी।
वो कुछ नहीं बोल रही थी — मगर सब कह रही थी,
उसके पास बैठकर लगा, जैसे वक्त भी ठहर गया।
हर झपकती स्ट्रीट लाइट के साथ
एक नई कहानी दिल में लिखी जा रही थी
हमारे बीच कोई बात नहीं हुई,
बस धड़कनों की आवाज़ें तेज़ थीं,
उसके उंगलियों से टकरा कर मेरी उँगलियाँ
कुछ पल ठहर गई थीं।
वो मुस्कुराई नहीं,
जैसे कोई राज़ कह गई,
बस के झटकों में जब उसका हाथ मेरे हाथ से टकराया,
मेरे वजूद ने पहली बार किसी को खुद से प्यारा बताया।
हम खामोश थे, पर ख्वाहिशें बहुत थीं,
हर लम्हा जैसे उसके पास गुज़रने की मन्नत थीं।
उसके कंधे की ओर हल्का सा झुकाव,
जैसे दिल ने पहली बार खुद को बेनकाब किया था।
बस के झटकों में उसने अचानक मेरे बाजू को थाम लिया,
जैसे किसी अनजाने डर से, उसने मुझे अपना मान लिया।
उसकी उंगलियाँ मेरी उंगलियों पर धीरे से जमी थीं,
और दिल की धड़कनें जैसे कह रही थीं — "अब यही तो कमी थी।"
वो चुप थी, पर उसकी पकड़ बहुत कुछ कह रही थी,
हर झटके पर वो और भी करीब हो रही थी।
उसके माथे की लटें मेरे दिल से छू गईं,
जैसे रात ने अपने सारे राज़ मुझ पर खोल दिए।
ना उसने हटाया हाथ, ना मैंने कुछ कहा,
मगर उस पकड़ में एक अजीब सुकून था — बेआवाज़, मगर गूंजता हुआ।
सफर जारी था, सब कुछ ठहरा हुआ सा,
बस वो थी — पास, खामोश, मगर एहसासों से भरी हुई।
मैंने हल्के से उसके गाल को छुआ था,
वो नहीं चौंकी… बस आँखें मींच ली थीं —
जैसे पहले ही जानती हो कि ये पल आएगा।
वो पल न शरमाया, न इज़हार हुआ,
बस साँसें थोड़ी और गहरी हो गई थीं।
उसकी पलकों के नीचे कोई ख़्वाब काँप रहा था,
और मेरी उँगलियाँ जैसे उसे पढ़ रही थीं —
बिना किसी किताब, बिना किसी जुबान के।
मैंने खुद को रोका भी नहीं, और वो भी नहीं टली,
जैसे उस एक छुअन में हमारी मोहब्बत पिघल चली।
ना कोई वादा, ना कोई नाम —
फिर भी उस लम्हे ने हमें उम्र भर के लिए एक बना दिया था।
सुबह होते-होते चाँद भी थोड़ा पास आ गया था,
और मेरे होंठों से पहली बार कोई सवाल निकल आया था।
"नींद आई?" — मैंने बस इतना ही कहा,
वो मुस्कुराई, जैसे कह रही हो — "अब तक तो तुम ही में खोई थी।"
बस की खिड़की से रोशनी आ रही थी,
और उसके चेहरे पर जैसे रौशनी नाच रही थी।
वो बोली — "रात लंबी थी, पर सफ़र प्यारा बन गया,"
मेरे दिल ने कहा — "शुक्र है, अब फासला हमारा नहीं रहा।"
हमने कॉफी पर बात की, मौसम का ज़िक्र आया,
फिर धीरे-धीरे हर लफ़्ज़ में मोहब्बत सा असर आया।
वो अब मुस्कुरा रही थी, आँखों में एक नयी चमक थी,
जैसे कह रही हो — "रात की शुरुआत थी, सुबह से अब किस्सा चलेगा।"
मैंने कुछ नहीं कहा, वो भी खामोश रही,
पर उस खामोशी में जैसे एक मोहब्बत की लिपि लिखी गई।
उसका उतरना, और मुड़कर एक बार देखना,
मेरे सफर का सबसे हसीन मोड़ बन गया।
वो गई, तो बस जैसे खाली हो गई,
पर उसकी खुशबू अब तक उस सीट पर बैठी है,
मुझे भी अब बस के सफर सुहावना लगता है
शायद फिर वो किसी दिन बगल में आ बैठे।
कभी सोचता हूं —
अगर फिर मिली, तो कह दूंगा,
"तुमसे पहली बार ही नहीं, हर बस के मोड़ पर प्यार हुआ है,
इस सफर में नहीं, ज़िंदगी भर के लिए तुम्हारा इंतज़ार हुआ है।"
• अर्पित •
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