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कविता : उलझे रास्ते

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"उलझे रास्ते"

चौराहे पर खड़े हुए है, मंजिल का कुछ पता नही
हर तरफ सड़कें ही सड़कें, छोर का कुछ पता नही ?

एक राह पर सपनें है, हम सबको बड़ा लुभाते है
पर अकेले चलना होगा, ये कहकर घबड़वाते है ?

एक राह सीधी सी है, सब उसपर है भाग रहे 
भीड़तंत्र से ही अपनी, सारी उम्मीदें साध रहे ?

एक राह पर अपने हैं, अनुभव का दम्भ दिखाते हैं
खींच तानकर तुमको, उस पर चलाना चाहते हैं ?

एक राह बुद्धि से परे है, उस पर कोई नही चले
लेकिन कहीं तो जाती है, मंजिल तक पंहुचाती है ?

- अर्पित सचान 


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